यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।
ये पंक्तियाँ चाहे जितनी भी बार क्यों ना सुनी जाएं, हर बार एक नयी चेतना, एक नयी शक्ति, एक नयी ऊर्जा का प्रवाह कर उत्साह से भर देती हैं।
उन्नाव जिले के झगरपुर ग्राम में 5 अगस्त सन् 1915 को जन्मे शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हिन्दी गीत के सशक्त हस्ताक्षर हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर तथा डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले ‘सुमन’ जी ने अनेक अध्ययन संस्थाओं, विश्वविद्यालयों तथा हिन्दी संस्थान के उच्चतम पदों पर कार्य किया। जिन्होंने सुमन जी को सुना है वे जानते हैं कि ‘सरस्वती’ कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है।
उनकी कविताओं मे समाज की वर्तमान दशा का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए ‘ज्ञान’ और ज्ञान की ‘विमलता’ से भरापूरा महसूस करता था। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे-
“मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यो के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।”
सरलता और सहजता इनकी रचनाओं मे कूट- कूट कर भरी है, ठीक वैसे ही जैसा की इनका स्वभाव था।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
डा. शिवमंगल सिंह सुमन के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सुमन जी का एक ऐसा स्वरूप था- देशभक्त,राष्ट्रवादी।
आज़ादी मिलने के बाद भी जब देश मे लोगों ही हालत मे सुधार ना आया, देश अंदर ही अंदर जाति- धर्म के नाम पर अलग-अलग दिख रहा था तो सुमन जी का ये दर्द कविता के रूप मे निकल कर सामने आया-
जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
प्रगतिवादी कविता के स्तंभ डा. शिवमंगल सिंह सुमन लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचने के बाद 27 नवंबर 2002 को चिरनिद्रा में लीन हो गए। ‘सुमन’ चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब ‘पद्य’ में हैं, स्मृतियों में जीवित हैं, और उनकी रचनायें जीवन की कठिनाइयों में प्रेरणा देती, अंधेरे मे रास्ता दिखाने का काम हमेशा करती रहेंगी। इसी तरह की उनकी एक रचना की कुछ पंक्तियाँ -
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
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